अलविदा चुन्नी दा: दिलीप कुमार, प्राण भी रहे फैन

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नई दिल्लीचुन्नी गोस्वामी () के पास वह सब कुछ था जो एक खिलाड़ी अपने पास होने का सपना देखता है लेकिन कुछ ही लोगों के पास ऐसी नैसर्गिक आलराउंड प्रतिभा होती है जो उन्हें भारत के सबसे महान खिलाड़ियों की सूची में जगह दिलाती है। छह फीट लंबे सुबीमल गोस्वामी या ‘चुन्नी दा’ आखिरी भारतीय कप्तान थे जिन्होंने एशियाई खेलों में स्वर्ण पदक जीतने वाली भारतीय टीम की अगुआई की। वह ओलिंपियन के अलावा प्रथम श्रेणी क्रिकेट टीम के कप्तान भी रहे और सर गैरी सोबर्स ने अपनी आत्मकथा में उनका जिक्र किया है।

इस तरह कोई भी उनकी तरह बनने का सपना देखना चाहेगी। कलकत्ता विश्व विद्यालय के ‘ब्ल्यू’ (क्रिकेट और फुटबॉल दोनों खेलने वाले) गोस्वामी भारतीय खिलाड़ियों से जुड़ी आम धारणा और उनके फर्श से अर्श तक पहुंचने की कहानी के विपरीत थे। गोस्वामी का जन्म उच्च मध्यम वर्गीय परिवार में हुआ और उन्होंने अपना पूरा जीवन दक्षिण कोलकाता के समृद्ध जोधपुर पार्क इलाके में बिताया। उन्हें विश्व विद्यालय में शिक्षा हासिल की और अगर भारतीय फुटबॉल के इतिहास पर गौर करें तो वह संभवत: सबसे महान ऑलराउंड फुटबॉलर थे।

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फर्राटे से विरोधी भी होते थे हैरानवह सेंटर फारवर्ड (1960 के दशक में राइट-इन) के रूप में खेले लेकिन उन्हें मैदान पर खिलाड़ियों की स्थिति की गजब की समझ थी। गोस्वामी विरोधी खिलाड़ियों को छकाने में माहिर थे और बाक्स के किनारे से गजब का फर्राटा लगातार विरोधियों को हैरान करने की क्षमता भी उनमें थी। एक अन्य महान खिलाड़ी दिवंगत पीके बनर्जी ने कई मौकों पर कहा था, ‘मेरे मित्र चुन्नी के पास सब कुछ था। दमदार किक, ड्रिबलिंग, ताकतवर हेडर, तेजी दौड़ और खिलाड़ियों की स्थिति की समझ।’

16 वर्ष की उमें शुरू हुआ था करिश्माई करियरबनर्जी और गोस्वामी की जोड़ी मैदान पर अटूट थी लेकिन इसके बावजूद दोनों एक-दूसरे से काफी अलग थे। शानदार व्यक्तित्व के धनी गोस्वामी मोहन बागान की ओर से रोवर्स कप में खेलते हुए मुंबई में आकर्षण का केंद्र हुआ करते थे। गोस्वामी अपने अंतिम दिनों तक भी सिर्फ मोहन बागान के प्रति समर्पित रहे। वह 16 साल की उम्र में इस क्लब से जुड़े थे और फिर हमेशा इसी का हिस्सा रहे। वह मोहन बागान के लिए क्लब क्रिकेट भी खेले।

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दिलीप कुमार और प्राण थे बड़े फैनकहा जाता है कि गोस्वामी ने 1968 में जब मुंबई में अंतरराष्ट्रीय फुटबॉल से संन्यास की घोषणा की थी तो दो विशेष प्रशंसकों ने उनसे मिलकर उनसे उनका फैसला बदलने का आग्रह किया था। ये दो प्रशंसक और कोई नहीं बॉलिवुड सितारे दिलीप कुमार और प्राण थे जो कूपरेज मैदान पर ऐसा कोई मैच देखने से नहीं चूकते थे, जिसमें गोस्वामी खेल रहे हों। गोस्वामी की महानता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि उन्होंने 30 बरस की उम्र में फुटबॉल को अलविदा कह दिया और फिर अपने दूसरे जुनून क्रिकेट के प्रति प्यार को पूरा किया।

कैच पर फिदा हो गए थे सोबर्सउनकी अगुआई में बंगाल ने 1972 में रणजी ट्रोफी फाइनल में जगह बनाई। गोस्वामी ने 1967 में गैरी सोबर्स की वेस्टइंडीज टीम के खिलाफ अभ्यास मैच में संयुक्त क्षेत्रीय टीम की ओर से मैच में आठ विकेट चटकाए। इस मैच के दौरान गोस्वामी ने पीछे की ओर 25 गज तक दौड़ते हुए कैच लपका जिसके बाद सोबर्स ने उनकी जमकर तारीफ की। गोस्वामी अपने मित्रों से मजाकिया लहजे में कहते थे, ‘सोबर्स को नहीं पता था कि मैं अंतरराष्ट्रीय फुटबॉलर था। पीछे की ओर 25 गज दौड़ना मेरे लिए कोई बड़ी बात नहीं है।’

उन्होंने कभी क्लब या राष्ट्रीय स्तर पर कोचिंग नहीं दी इसके बावजूद भारतीय फुटबॉल की सबसे बड़ी नर्सरी टाटा अकादमी (टीएफए) के निदेशक पद के लिए वह दिवंगत रूसी मोदी की पहली पसंद थे। वह कोलकाता के शेरिफ भी रहे और उन्होंने समाचार पत्रों में भारतीय फुटबॉल पर लेख लिखे। उन्हें साउथ क्लब में टेनिस खेलना और स्काच पीना भी पसंद था।

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