आरक्षण पर फिर क्यों मचा हल्ला, समझें पूरी बात

1 min read

नई दिल्ली
सुप्रीम कोर्ट के 7 फरवरी के एक आदेश से सियासी घमासान शुरू हो गया है। सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला प्रमोशन में आरक्षण को लेकर है। शीर्ष अदालत ने उत्तराखंड हाई कोर्ट के एक आदेश को पलटते हुए साफ कहा कि प्रमोशन में आरक्षण मौलिक अधिकार नहीं है और राज्य को इसके लिए बाध्य नहीं किया जा सकता। अब संसद में तमाम पार्टियां सुप्रीम कोर्ट के फैसले का विरोध करते हुए केंद्र सरकार पर हमलावर हैं। कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले को बीजेपी और आरएसएस की आरक्षण को लेकर सोच से जोड़ दिया। राहुल ने कहा कि बीजेपी-आरएसएस आरक्षण को खत्म करने के प्रयास में जुटी है।

उधर, लोकसभा में संसदीय कार्य मंत्री प्रह्लाद जोशी और रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने कहा कि उत्तरांखड की सरकार ने ही 2012 में बिना आरक्षण के रिक्त सरकारी पदों पर नियुक्ति की अधिसूचना जारी की थी जिसे हाई कोर्ट ने रद्द कर दिया था। पूरी कहानी यह है कि राज्य सरकार के एक नोटिफिकेशन को हाई कोर्ट ने रद्द किया। राज्य सरकार ने इसे सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी और शीर्ष अदालत ने हाई कोर्ट के फैसले को रद्द करते हुए नोटिफिकेशन को वैध ठहराने का आदेश दिया।
आइए सिलसिलेवार ढंग से जानते हैं, क्या है पूरा मामला? कहां से और क्यों हुई इसकी शुरुआत?

2012 में उत्तराखंड सरकार की एक अधिसूचना से शुरुआत
उत्तराखंड की सरकार ने 5 सितंबर, 2012 को एक नोटिफिकेशन जारी किया जिसमें एसटी-एसटी समुदाय के लोगों को आरक्षण दिए बिना राज्य में सभी सरकारी पदों को भरने का आदेश दिया गया। उत्तराखंड सरकार ने अपने नोटिफिकेशन जारी करते हुए कहा था कि उत्तर प्रदेश पब्लिक सर्विसेज (रिजर्वेशन फॉर शिड्यूल्ड कास्ट्स, शिड्यूल्ड ट्राइब्स ऐंड अदर बैकवर्ड क्लासेज) ऐक्ट, 1994 के सेक्शन 3(7)का लाभ भविष्य में राज्य सरकार द्वारा प्रमोशन दिए जाने के फैसलों के वक्त नहीं दिया जा सकता है।

पढ़ें:

टैक्स डिपार्टमेंट में असिस्टेंट कमिश्नर ने हाई कोर्ट में दी चुनौती
टैक्स डिपार्टमेंट में सहायक आयुक्त (असिस्टेंट कमिश्नर) के रूप में तैनात उधम सिंह नगर निवासी ज्ञान चंद ने उत्तरांखड सरकार के इस आदेश के खिलाफ हाई कोर्ट का दरवाजा खटखटाया। अनुसूचित जाति के ज्ञान चंद तब उधम सिंह नगर के खातिमा में तैनात थे।

दरअसल, ज्ञान चंद ने उत्तराखंड सरकार के इस नोटिफिकेशन को रद्द करने की मांग करते हुए हाई कोर्ट के 10 जुलाई, 2012 के एक फैसले को ही आधार बनाया था। उत्तराखंड हाई कोर्ट ने यह आदेश 2011 में दाखिल एक याचिका की सुनवाई के बाद दिया था। इसमें याचिकाकर्ता ने उत्तर प्रदेश पब्लिक सर्विसेज (रिजर्वेशन फॉर शिड्यूल्ड कास्ट्स, शिड्यूल्ड ट्राइब्स ऐंड अदर बैकवर्ड क्लासेज) ऐक्ट, 1994 के सेक्शन 3(7) को चुनौती दी थी। उत्तराखंड के निर्माण के बाद सरकार ने इस ऐक्ट को नए राज्य में भी अपनाया था। सेक्शन 3(7) को चुनौती एम. नागराज एवं अन्य बनाम भारत सरकार एवं अन्य मामले में साल 2006 में दिए गए सुप्रीम कोर्ट के आदेश को आधार बनाकर दी गई थी।

हाई कोर्ट में उत्तराखंड सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के आदेश का दिया हवाला
उत्तराखंड हाई कोर्ट में दलील दी गई कि उत्तर प्रदेश पब्लिक सर्विसेज (रिजर्वेशन फॉर शिड्यूल्ड कास्ट्स, शिड्यूल्ड ट्राइब्स ऐं अदर बैकवर्ड क्लासेज) ऐक्ट, 1994 का सेक्शन 3(7) सुप्रीम कोर्ट के आदेश की मूल भावना के खिलाफ है और सेक्शन 3(7) को 10 जुलाई, 2012 से खत्म मान लिया गया। सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि आरक्षण सुनिश्चित करने के लिए एससी-एसटी समुदाय के लोगों की संख्या पता करना जरूरी है।

हाई कोर्ट ने राज्य सरकार के नोटिफिकेशन को रद्द किया
उत्तराखंड हाई कोर्ट ने 2019 में राज्य सरकार के 2012 के नोटिफिकेशन को रद्द करते हुए सरकार को वर्गीकृत श्रेणियों का आरक्षण देने का आदेश दिया। उत्तराखंड हाई कोर्ट के चीफ जस्टिस रमेश रंगनाथन और जस्टिस एनएस प्रधान ने नोटिफिकेशन को रद्द करते हुए कहा था कि अगर राज्य सरकार चाहे तो वह संविधान के अनुच्छेद 16 (4A) के तहत कानून बना सकती है।

पढ़ें:

हाई कोर्ट के फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में दायर हुईं 7 SLP
हाई कोर्ट के फैसले से कई पक्ष प्रभावित हुए और कुल 7 पार्टियों ने सुप्रीम कोर्ट में स्पेशल लीव पिटिशन (एसएलपी) दायर की। पूरा विवाद संविधान के अनुच्छेद 16 की व्याख्या को लेकर हुआ। आर्टिकल 16 का विषय ‘लोक नियोजन के विषय में अवसर की समता’ है। दरअसल, सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने 26 सितंबर, 2018 को फैसला दिया था जिसमें उसने स्पष्ट शब्दों में आर्टिकल 16 (4A) और 16 (4B) को संविधान के मूल ढांचे के खिलाफ नहीं माना। संविधान पीठ ने प्रमोशन देने में इन दोनों अनुच्छेदों को लागू करने का निर्णय राज्य सरकारों पर छोड़ दिया।

सुप्रीम कोर्ट ने पलटा हाई कोर्ट का फैसला
उत्तराखंड सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में दलील दी कि संविधान के अनुच्छेद 16(4) और 16(4-A) में इस आशय के कोई प्रस्ताव नहीं हैं और आरक्षण किसी का मौलिक अधिकार नहीं है। सुप्रीम कोर्ट ने 7 फरवरी 2020 को उत्तरांखड सरकार की इस दलील को मानते हुए कहा कि संविधान के ये दोनों अनुच्छेद सरकार को यह अधिकार देते हैं कि अगर उसे लगे कि एसटी-एसटी समुदाय का सरकारी नौकरियों में पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं है तो वह नौकरियों एवं प्रमोशन में आरक्षण देने का कानून बना सकती है। इसके साथ ही, सुप्रीम कोर्ट ने 5 सितंबर, 2012 के उत्तराखंड सरकार के नोटिफिकेशन को वैध बताते हुए हाई कोर्ट के फैसले को पलट दिया।

सुप्रीम कोर्ट बोला- प्रमोशन में आरक्षण देने के लिए बाध्य नहीं राज्य सरकार
सुप्रीम कोर्ट ने अपने आदेश में कहा कि राज्य सरकार प्रमोशन में आरक्षण देने के लिए बाध्य नहीं है। किसी का मौलिक अधिकार नहीं है कि वह प्रमोशन में आरक्षण का दावा करे। कोर्ट इसके लिए निर्देश जारी नहीं कर सकता कि राज्य सरकार आरक्षण दे। सुप्रीम कोर्ट ने इंदिरा साहनी जजमेंट (मंडल जजमेंट) का हवाला देकर कहा कि अनुच्छेद-16 (4) और अनुच्छेद-16 (4-ए) के तहत प्रावधान है कि राज्य सरकार डेटा एकत्र करेगी और पता लगाएगी कि एससी/एसटी कैटिगरी के लोगों का पर्याप्त प्रतिनिधित्व है या नहीं ताकि प्रमोशन में आरक्षण दिया जा सके। लेकिन ये डेटा राज्य सरकार द्वारा दिए गए रिजर्वेशन को जस्टिफाई करने के लिए होता है कि पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं है। लेकिन ये तब जरूरी नहीं है जब राज्य सरकार रिजर्वेशन नहीं दे रही है। राज्य सरकार इसके लिए बाध्य नहीं है। और ऐसे में राज्य सरकार इसके लिए बाध्य नहीं है कि वह पता करे कि पर्याप्त प्रतिनिधित्व है या नहीं। ऐसे में उत्तराखंड हाई कोर्ट का आदेश खारिज किया जाता है और आदेश कानून के खिलाफ है।

You May Also Like

More From Author

+ There are no comments

Add yours