क्या बिहार विधानसभा चुनाव के दौरान गठबंधन पाॅलिटिक्स की प्रयोगशाला बनती जा रही है? क्या इस बार गठबंधन में नए प्रयोग देखने को मिल सकते हैं? क्या इन प्रयोग के दम पर पिछले तीन दशकों से चली आ रही एक ढर्रे की राजनीति में बड़ा बदलाव देखने को मिल सकता है? यह सवाल तब उठे हैं जब बिहार में इस बार पक्ष और विपक्ष दोनों खेमे में प्रयोग देखने को मिल रहे हैं। इसके पीछे कई सियासी कारण हैं तो कुछ बनते सामाजिक समीकरण भी हैं।
दलित राजनीति का प्रयोगइस बार बिहार में बहुत सालों बाद दलित राजनीति केंद्र में सामने आ रही है। दलित समीकरण को देखते हुए गठबंधन में राजनीतिक दिशा तय हो रही है। दलित नेतृत्व भी मुखर होकर सामने आ रहा है। चिराग पासवान () ने दोनों गठबंधन के बीच अपने तेवर से सस्पेंस बढ़ा दिया। उधर राज्य के अन्य दलित नेता जीतन मांझी (Jitan Ram Manjhi) नीतीश () के पास दोबारा लौट गये। इनके बीच आरजेडी (RJD) ने जेडीयू के दलित नेता श्याम रजक को अपने पाले में कर लिया। एक दिन पहले ने एससी-एसटी एक्ट के तहत दलित हिंसा में मारे गये लोगों के परिजनों को सरकारी नौकरी देने का एलान किया।
खुद को दलित सीएम चेहरे के रूप में प्रोजेक्ट कर चुके हैं चिराग
चिराग पासवान खुद को दलित सीएम चेहरे के रूप में प्रोजेक्ट कर चुके हैं। रणनीतिकारों के अनुसार, अभी की मौजूदा राजनीति में चिराग ने जोखिमभरा बड़ा कार्ड खेला है। चिराग ने अपने दम पर राज्य में चुनाव लड़ने तक का संकेत दे दिया। इसके पीछे राज्य में मौजूदा सियासी माहौल है। मुकेश सहनी,उपेंद्र कुशवाहा और पप्पू यादव जैसे नेताओं को अगर किसी गठबंधन में जगह नहीं मिली तो वे तीसरे विकल्प का रास्ता देख सकते हैं।
यह भी तर्क दिया जा रहा है कि एनडीए (NDA) से नाराज वोटर शायद आरजेडी (RJD) गठबंधन को वोट न करे। ऐसा कहने वालों के पीछे आधार है कि इस बार आम चुनाव में जहां एनडीए और यूपीए में सीधा मुकाबला था, 15 फीसदी से अधिक वोट तीसरे किसी अन्य दल को गए। मतलब एनडीए से जो वोट छिटका वह आरजेडी तक ट्रांसफर नहीं हुआ। अगर संख्या की बात करें तो लगभग 15 फीसदी सवर्ण आबादी है। राज्य में मुस्लिम और यादव 30 फीसदी के करीब हैं, जो आरजेडी का मजबूत आधार माना जाता रहा है। बाकी 20 फीसदी दलित और बाकी 35 फीसदी नन-यादव ओबीसी वोट हैं। यही 55 फीसदी वोट राज्य की राजनीति की दिशा तय करते रहे हैं। हाल के सालों में यह वोट बीजेपी और नीतीश कुमार के पक्ष में अधिक जाते रहे हैं।
विपक्ष इसमें सेंध लगाने की हर कोशिश कर रहा है। वहीं बीजेपी (BJP) और जेडीयू (JDU) हर सूरत में इसे बचाकर बड़ी जीत पाने की उम्मीद में है। वहीं चिराग पासवान इन 55 में सेंध लगाकर बाकी के पास संदेश दे रहे हैं कि मौजूदा सूरत में सिर्फ वही पुल का काम कर सकते हैं दोनों के पांरपरिक वोट बैंक में। इसी क्रम में सीटों के बंटवारे तक राज्य में गठबंधन में नये प्रयोग देखने को मिल सकते हैं।
क्यों हो रहें हैं प्रयोग
दरअसल पिछले तीन दशक से बिहार ने समान राजनीति देखी। इस दौरान लालू प्रसाद यादव (Lalu Prasad Yadav), नीतीश कुमार और रामविलास पासवान राजनीति के केंद्र में रहे। पहले लालू प्रसाद और बाद में नीतीश कुमार के चेहरे के इर्द-गिर्द राजनीति घूमी। इस दौरान गठबंधन में अधिक प्रयोग की गुंजाइश नहीं रही। 2000 से बीजेपी नीतीश की जूनियर पार्टनर के रूप में रही, 2013 से 2017 के बीच का वक्त छोड़ दें तो। भले 2014 में बीजेपी ने अकेले दल राज्य की 40 में 31 लोकसभा सीट जीती लेकिन 2015 में महागठबंधन के सामने कमजोर साबित हुई और आरजेडी-बीजेपी के बाद तीसर नंबर की ही पार्टी रही। इस दौरान नेतृत्व के स्तर पर भी नये स्थापित चेहरे नहीं आए जो इनके किले को चुनौती दी।
इस बार हालात बदले नजर आ रहे हैं। पहली बार लालू प्रसाद यादव चुनाव के समय सक्रिय राजनीति से दूर हैं। आरजेडी कमान संभाल चुके हैं। रामविलास पासवान भी अब खुद को राज्य की राजनीति से अलग कर चुके हैं और उनकी जगह चिराग पासवान पार्टी की कमान संभाल चुके हैं। नीतीश कुमार का भी यह अंतिम विधानसभा चुनाव हो सकता है। उनकी अपनी लोकप्रियता पर पहली बार राज्य में गंभीर सवाल उठ रहे हैं। बीजेपी एक पार्टी के रूप में जरूर सबसे स्थापित और मजबूत दिखती है लेकिन राज्य नेतृत्व का संकट भी इनके पास है। पिछले तीन दशक से कांग्रेस राज्य में कमाबेश अस्तित्वविहीन ही रही है। इस तरह कहीं न कहीं इस विधानसभा चुनाव में नये नेतृत्व और इसके साथ नये समीकरण के पनपने का रास्ता दिख रहा है।
इसी विकल्प को भुनाते हुए सभी छोटे-बड़ दल अपने-अपने हिसाब से पत्ते फेंकने में व्यस्त है। बीजेपी को लग चुका है कि अब बिहार में जूनियर पार्टनर कहलाने का वक्त जा चुकी है और अब राज्य में नीतीश को बीजेपी के साथ की जरूरत है। वहीं कांग्रेस को लग रहा है कि पहली बार वह राज्य में अपने खोये पैर को जमाने का वक्त आ गया है। इसी कारण वह आरजेडी से सीटों के मामले में मजबूत डील से लेकर अपने दम पर आगे बढ़ने तक पैंतरा बीच-बीच में लेती रही है। वहीं इन संघर्षसील आरजेडी और जेडीयू, मजबूत बीजेपी और दोबारा अपना वजूद तलाश में जुटी कांग्रेस के बीच छोटे क्षेत्रीय दलों को भी लग रहा है कि वह अपनी सियासी पूंजी को बढ़ा ले, न जाने कब काम आ जाए।