प्रणब दा के होने का मतलब, ऐसा शख्स जिसका दिमाग कंप्यूटर से भी तेज था

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नई दिल्ली
नहीं रहे। इसके साथ ही पिछले 6 दशकों तक देश की सियासत का एक सबसे मजबूत पहिया भी उखड़ गया। राजनीति के दादा से लेकर सीटिजन मुखर्जी के रूप में प्रणब दादा का राजनीतिक सफर निदा फाजली के शब्दों-कभी किसी काे मुकम्म्मल जहां नहीं मिलता,कभी जमीं तो कभी आसमां नहीं मिलता माफिक रहा। जिसे चाहा वह या तो नहीं मिला या बहुत दुश्वारी से मिला। और जिसे नहीं चाहा, वो उन्हें अचानक ही मिलता गया।

पचास-साठ के दशक में बंगाली परिवेश में पल-बढ़ रहे प्रणब दा के मन में हसरतें बड़ी शुरू से थीं, उनका जोश भी था। लेकिन मकसद पाने की दिशा का अंदाजा नहीं था। उनका परिवार से शुरू से जुड़ा रहा था। प्रणब ने पहले बतौर प्रोफेसर के साथ अपना करियर शुरू किया। फिर वह पत्रकारिता में भी आए। बंगाल में रहते हुए वह उभरती इंदिरा गांधी से बेहद प्रभावित थे। बंगाल दौरे के समय इंदिरा को प्रणब मुखर्जी में संभावनाएं दिखीं, जिसके बाद उन्हें अपनी नई टीम में जगह दी।

कम समय में ही वह इंदिरा के सबसे करीबी नेताओं में शामिल हो गए। वह मुखर्जी से इतनी प्रभावित हुईं कि कई दिग्गजों का पत्ता काटते हुए 1969 में युवा प्रणब दा को राज्यसभा सांसद बना दिया। अगले कुछ सालों में वह इंदिरा गांधी के साथ संजय गांधी के भी करीबी हो गए। जब आपातकाल लगा तो वह इंदिरा-संजय गांधी की कोर टीम का हिस्सा बन गए थे।

जब इमर्जेंसी के बाद इंदिरा हारी तब भी वह प्रतिबद्धता के साथ उनके साथ बने रहे। प्रणब मुखर्जी ने अपनी किताब में इसका जिक्र किया है कि 1980 में इंदिरा गांधी नहीं चाहती थीं कि वह लोकसभा चुनाव लड़ें। लेकिन वह पश्चिम बंगाल में बोलपुर लोकसभा सीट से इंदिरा गांधी की इच्छा के विपरीत चुनाव लड़े और हार गए। तब इंदिरा गांधी उनसे बेहद नाराज हुईं, उन्हें डांट भी लगाई। प्रणब ने लिखा कि उन्होंने खुद से और बाकी सभी लोगों ने भी मान लिया था कि उन्हें सरकार में जगह नहीं मिलेगी। लेकिन इंदिरा की कैबिनेट में उन्हें जगह दी गई।

हालांकि प्रणब दा के मन में यह टीस बनी रही। वे कभी चुनाव नहीं जीत पाते थे। इसपर उनके करीबी मजाक भी उड़ाते थे। लोकसभा का सांसद बनना उनके लिए एक सपने कर तरह हो गया। यह सपना 2004 आकर पूरा हुआ जब वह पहली बार चुनाव जीते। तब तक हर बड़ा मंत्रालय का पद संभाल लेने वाले प्रणब दा लोकसभा चुनाव जीतकर खुशी के मारे फूट-फूट कर रोने लगे थे।

उनका लाेकसभा जीतने का सपना तो पूरा हो गया लेकिन एक और दबी हसरत थी प्रधानमंत्री बनने की। कहा जाता है कि 1984 के बाद जब इंदिरा गांधी की हत्या हुई तो उनके उत्तराधिकारी के रूप में सबसे आगे उनका नाम आया।, लेकिन राजीव गांधी चुने गए। प्रणब ने इस फैसले को स्वीकार तो किया लेकिन राजीव को स्वाभाविक नेता नहीं मान पाए, नतीजा हुआ कि प्रणब ने कांग्रेस छोड़कर अपनी पार्टी बना ली। लेकिन बंगाल में वह कोई प्रभाव नहीं छोड़ सके। अंत में कांग्रेस में दोबारा घर वापसी की।

जब राजीव गांधी की हत्या हुई तब भी उनके उत्तराधिकारी के रूप में उनका नाम आया, लेकिन पीएम बने नरसिंहा राव। प्रणब मुखर्जी बाद के सालों में सोनिया गांधी के करीब ऐसे समय आए जब पार्टी वह हाशिए पर आ गई थीं। लेकिन वह सबसे खराब समय में सोनिया के सलाहकार बने। 1998 से 2004 के बीच कांग्रेस को पटरी पर लाने के साथ सत्ता में आए। तब भी ऐसी चर्चा थी कि सोनिया प्रणब को पीएम के रूप में पेश कर सकती हैं। लेकिन फिर प्रणब का सपना टूटा। सभी को चाैंकाते हुए डॉ मनमोहन सिंह पीएम बने।

अपने करीबियों से बातों में उनकी पीएम न बन पाने की टीस सामने आ जाती थी। लेकिन इसे कभी कोई मुद्दा नहीं बनाया। यूपीए में उनक कद पीएम से कम बिल्कुल नहीं था। पार्टी और सरकार के बीच पुल का काम वही करते थे। सोनिया के संकटमोचक बने हुए थे। चाहे यूपीए-1 के दौरान विश्चासमत लेने का मसला हो या 2011 में अन्ना मूवमेंट से निबटने का मुद्दा, प्रणब ही सरकार-पार्टी को गाइड करते रहे।

2012 में प्रणब दा एक बार अपने घर पर मीडिया के साथ मिल रहे थे। तब उनके राष्टपति की उम्मीदवारी पर कांग्रेस गंभीर नहीं थी। तब उन्होंने मीडिया से कहा कि उन्हें घर छोटा ही चाहिए कि लेकिन राष्ट्रपति भवन की सबसे बड़ी खासियत यह है कि वहां वह मॉर्निंग वॉक अच्छे तरीके से कर लेंगे। यह पार्टी नेतृत्व को साफ संदेश था, जल्द हीउनकी उम्मीदवारी का ऐलान कर दिया गया। तब कहा गया कि भले प्रणब मुखर्जी एक राष्ट्रपति के रूप में बेहतर पसंद थे। लेकिन सक्रिय राजनीति से हटने का कांग्रेस को बड़ानुकसान उठाना पड़ा। 2014 आम चुनाव में करारी हार के पीछे पार्टी में परिपक्व नेतृत्व का अभाव बताया गया।

कहा जाता था कि प्रणब मुखर्जी के दिमाग के अंदर टेप रिकॉर्डर फिट होता था। अगर एक बात प्रणब मुखर्जी के सामने हो जाए तो कहते थे मानो दिमाग में वह टेप हो गई है। नियम-कानून से लेकर सालों पुरानी दास्तां का,चलता-फिरता इनसाइक्लापेडिया माने जाते थे। 40 सालों तक उन्होंने डायरी भी लिखी है। उन्होंने कहा था ,इसके पन्ने उनके मरने के बाद प्रकाशित किए जाएं। अब जब प्रणब दा नहीं रहे, अब वे पन्ने भी सामने जाएंगे। अब उन पन्नों से राजनीति में दबी कितनी कहानियां प्रणब के निधन के बाद जीवित होगी, यह वक्त ही बताएगा।

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