बजरंगबली के शरण में इसलिए जा रहा विपक्ष?

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नरेंद्र नाथ मिश्रा, नई दिल्ली
क्या बजरंग बली देश के अंदर सियासत के नए प्रतीक बन गए हैं? क्या जिस तरह भगवान राम के इर्द-गिर्द राजनीतिक ताना-बाना बुना गया उसी तरह अब बजरंग बली भी मुख्यधारा की राजनीति में चर्चा में रहेंगे। सवाल है कि बजरंग बली किसके हनुमान बनेंगे? ये सवाल तब उठे जब दिल्ली चुनाव के दौरान बजरंग बली छाए रहे।

दिलचस्प बात ये कि आम आदमी पार्टी ने बहुमत के बावजूद इस प्रतीक को आगे ले जाने की कोशिश की। इस बदलाव को उत्सुकता के साथ देखा जा रहा है। आप नेता की ओर से कहा गया कि दिल्ली में हर महीने के पहले मंगलवार को का पाठ अलग-अलग इलाकों में किया जाएगा। इसकी शुरुआत मंगलवार से हो गई। इसके पीछे आप नेता तर्क दे रहे हैं कि बजरंग बली दिल्लीवासियों का संकट दूर करेंगे। चुनाव के दौरान भी अरविंद केजरीवाल ने खुद को हनुमान भक्त के रूप में पेश किया और कई टीवी इंटरव्यू में हनुमान चालीसा पढ़ कर सुनाई।

दिल्ली चुनाव में बजरंग बली के प्रतीक की क्यों जरूरत पड़ी?
बड़ा सवाल ये है कि आखिर बजरंग बली के प्रतीक की जरूरत क्यों पड़ी? इसके पीछे तीन दशक की राजनीतिक धारा को देखना होगा। इन सालों में बीजेपी ने राम के प्रतीक के साथ खुद को हिंदूवादी दल बनाने से लेकर सियासत में दबदबा बनाने में भी सफलता पाई। पार्टी ने पहले खुद को हिंदुत्व के हिमायती के रूप में स्थापित किया और बाद में अपने राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों को हिंदुओं की उपेक्षा करने वाली पार्टी बताकर लीड ले ली। दूसरे दलों को ये समझने में देर लगी और डैमेज कंट्रोल के लिए उन्हें सॉफ्ट हिंदुत्व की ओर जाना पड़ा।

केजरीवाल ने इस दिशा में प्रयोग शुरू किया है। उनकी राष्ट्रीय हसरत फिर सामने आ रही है। इसका संकेत रामलीला मैदान में शपथ समारोह में दिखा जब 2015 में आम आदमी की टोपी पहन कर शपथ लेने वाले केजरीवाल इस बार टीका लगाकर सामने आए। दिल्ली चुनाव में हिंदू समुदाय के वोटों का हिस्सा देखें तो केजरीवाल को बीजेपी से अधिक वोट मिले। इससे उन्हें अहसास हुआ कि अगर बीजेपी के राम को अपने हनुमान से प्रतीकों की राजनीति में काउंटर कर देते हैं तो उन्हें सियासी रूप से इन धाराओं के बीच एक विकल्प के रूप में देखा जा सकता है।

क्योंकि ‘दक्षिण’ ही उत्तर है
बजरंग बली की राजनीति में एंट्री को विश्लेषक संयोग नहीं मानते। उनका कहना है कि देश की राजनीति जिस दिशा में चल रही है उसमें दक्षिणपंथ के प्रतीक को ही तरजीह मिलेगी। इसलिए अटपटे प्रयोग तक किए जा रहे हैं। ऐसी कई मिसालें हैं। इनके बीच क्या अरविंद केजरीवाल का बजरंग बली के भरोसे दिल्ली से आगे का सियासी सफर बिना विघ्न के बढ़ेगा, इसके लिए अभी कई चालीसा लिखी जानी बाकी है।

दलित बताए गए हनुमान
हाल के समय में हनुमान के धर्म और जातियों का भी मुद्दा उठा लेकिन राजनीतिक बहस तब शुरू हुई जब 2019 के अंत में राजस्थान के विधानसभा चुनाव के दौरान हनुमान को दलित बता दिया गया। इसके पीछे भी दलितों को अपने पक्ष में करने की मंशा थी। योगी आदित्यनाथ के इस बयान पर खूब विवाद हुआ और बीजेपी के अंदर ही दो तरह की आवाजें उठने लगीं।

फिर मुस्लिम कनेक्शन
हाल के समय में हनुमान का जिक्र सियासत में प्रतीक के तौर पर या वोट खींचने की मंशा में कई बार किया गया। एक बार हनुमान की जड़ को इस्लाम में भी खोज गया जब यूपी के बीजेपी नेता बुक्कल नवाब ने कहा कि हनुमान नाम मुसलमानों से प्रेरित है,जैसे रहमान, इमरान, रमजान। तुलना के लिए उनकी पार्टी के ही नेताओं ने उनकी निंदा की।

जाट समुदाय से भी जोड़ा
फिर हनुमान को जाट समुदाय से जुड़ा बताया गया। यूपी के मंत्री मिनिस्टर लक्ष्मी नारायण चौधरी ने कहा कि जिस तरह जाट किसी संकट में फंसे लोगों की मदद के लिए बगैर सोचे-समझे आगे आ जाते हैं, वही स्वभाव हनुमान का भी था। इसके विवाद बढ़ता देख बीजेपी के शीर्ष नेतृत्व ने दखल देकर मामला शांत कराया।

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