सुकमा: होली दहन के बाद ढूंढोउत्सव मनाया जाता है। यह परम्परा सात पीढ़ियों से चलता आ रहा है। राजस्थानी समाज के द्वारा जिन घरों में नए बच्चे का जन्म हो वहां जाकर बच्चे की लम्बी उम्र की कामना करते हुए ढूंढोत्सव मनाया जाता है। इस दौरान राजस्थानी भाषा में ढूंढोत्सव गीत गाया जाता है।
कल यानि सोमवार रात करीब 9 बजे जिला मुख्यालय स्थित माहेश्वरी पारा में होलीका दहन कार्यक्रम का आयोजन किया गया। आसपास से काफी संख्या में भक्तगण पहुंचे। विधि-विधान व पूजा-अर्चना के बाद होलीका दहन कार्यक्रम शुरू हुआ। शुभ मुर्हत में होलीका दहन किया गया। वहा पर मौजूद लोगो ने होली दहन कार्यक्रम के कई प्रकार की रस्म अदा की। और क्षेत्र में शांति व अमन की प्रार्थना की। ठीक उसके बाद होलीका दहन में अधजली लकड़ी लेकर युवा ढूंढोत्सव मनाने के लिए घर-घर निकल पड़े। वो बच्चे जिनकी पहली होली है उनकी ढूंढ की जाती है।
यह है परम्परा
होलीका दहन स्थल पर सभी युवा एकत्रित होते है। उसके बाद हाथो में लठ्ठ या डंडे लिए उनके घर पहुंचते है जहां नवजात शिशु होता है। फिर वहा पर उस बच्चे के चाचा या भूआ घर के चैक पर चैकी पर बच्चे को गोदी में लेकर बैठती है। उसके बाद ढूंढोउत्सव के लिए आऐं युवा गाना गा कर बच्चे को आर्शीवाद देते है। उसके बाद घर का मुखिया उन लोगो को गुड़, पतासा, नारियल व पैसे देता है। वही महिलाऐं मंगल गीत भी गाती है।
यह है मान्यता
वैसे ढूंढोउत्सव के लिए कई मान्यता है और कई कथाऐं भी है जिससे एक यह भी है कि प्राचीन काल में पिंगलासुर नाम का राक्षस था। जो नवजात शिशुओं को खा जाता था। रक्षा के लिए गांव के लोग लट्ट लेकर खड़े होने लगे। बाद में यह परम्परा ढूंढोत्सव के रूप में मनाई जाने लगी। जिसमें लट्ट का प्रतीकात्मक डंडा लेककर शिशु के अरोग्य व आयु वृद्धि की कामना की जाती है।
एकत्रित पैसों का होता है सामूहिक भोज
होलिका दहन के बाद ढूंढोत्सव मनाया जाता है। पहले जमाने में यजमानों द्वारा दी गई सामग्री या पैसों का तो बंटवारा हो जाता था। लेकिन वर्तमान में सामग्री कम और पैसे ज्यादा दिए जाते है। उसके बाद एकत्रित पैसों से सामूहिक भोज का आयोजन किया जाता है। यह परंपरा सदियों से चलती आ रही है। और आज भी सुकमा में यह परंपरा पूरी की जाती है।